डॉ. अंजली दीवान, ग्रह विज्ञान विभाग, सेंट बीडज कालेज, शिमला

सब शांत कोई स्वर नहीं गूंजता,
बर्फ के फाहे शवेत चादर,
बुनते हुए आसमां से हिलते-डुलते,
कुछ इठलाते, कुछ इक दूजे को छूते हुए,
धरती पर जब बौछार करते हैं,
तो पेड़ पौधे नतमस्तक हो,
करते हैं उनका स्वागत ।
खिड़की पर बैठी उनकी अठखेलियां देखती हूँ,
तो मन झूमने लगता है ।
प्रकृति का सौंदर्य चर्मसीमा पर,
पहाड़ सफ़ेद चादर ओढ़े हुए आवाहन कर रहे हैं एक मौन से,
सराबोर पर्वत की चोटियां,
मानों आसमां को कर रही हैं छूने का यत्न ।
कभी-कभी सूरज भी झाँक लेता है,
बादलों के घूंघट के बीच से,
एक लय में बंधे बर्फ के कण,
जब चेहरे को सहला जाते हैं,
एक सुखद अनुभूति से घिरा मन,
फिर भी रहता है अतृप्त,
गिरते हुए लेकिन झूमते,
खिल-खिलाते बर्फ के सुनहरे कण,
चुपके से कह जाते हैं,
करणों को सहलाते हुए,
खुश रहो, दुनियां में रहते हुए भी,
रहो अंदर से स्वच्छ, शवेत,
जैसे हम हैं ।
शवेत कोई रंग नहीं, न ही कोई स्वरूप।
क्या हम भी नहीं बर्फ के शवेत कणों की भाँती ।
जब दुनियां में आते हैं,
तो कोई नाम, काम-धाम, रिश्ते-नाते, मित्र-दुश्मन,
कोई नाता नहीं होता ।
जिंदगी में धीरे-धीरे भूलने लगते हैं,
के हम भी कभी शवेत थे,
बर्फ के फाहों जैसे।
अब “मैं” ने मन को भर दिया है,
द्वेष, झूठ, क्रोध, लालच,
प्रतिस्पर्धा में पागल,
हम काले पड़ रहे हैं ।
एक दिन सबने कहना है, अलविदा इस दुनिया को।
क्या हम मिला पाएंगे नजर,
अपने दाता से ।
सफ़ेद बर्फ के कण तो समां चुके मिटटी में,
क्या टूटे सपनों, महत्वकांक्षाओं से ढकी,
रोती चिल्लाती हमारी आत्मा को,
वो परमपिता अपनाएगा,
या हम भटकते रह जाएंगे जन्म-जन्म तक ।

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