उमा ठाकुर, पंथाघाटी, शिमला

हिमाचल देवभूमि है यहाँ के लोगों का जीवन बड़ा ही सीधा-साधा और धार्मिक भावना से ओत प्रोत है। लोक जीवन के विविध रंग परम्पराएं, रीति रिवाज, वर्ष भर चलने वाले मेले और त्यौहार, लोक गीतों की स्वरलहरियां जीवन को खुशनुमा बना देती है। देव परम्परा व अनुष्ठान प्राचीन मान्यताओं को आज भी जीवित रखे हुऐ है। जैसा कि हम सभी जानते है कि हमारे हिमाचल मे बारह कोस पर बोली बदल जाती है, लेकिन जो हमारे रीति रिवाज, लोक परम्पराएं और लोक संस्कृति है, वह करीब-करीब एक समान ही है। हाल ही में हिमाचल की बोलियों को हिमाचली भाषा का स्वरूप दिया गया है, जिसकी लिपि तैयार की जा रहीं है। हम सभी के प्रयासों से ही हिमाचली भाषा को संविधान की आठवीं सूची में शामिल किया जा सकता है।

वर्तमान परिपेक्ष्य की अगर हम बात करें तो हमारे रहन-सहन,रीति रिवाजों मे काफी बदलाव आ चुका है। आधुनिकता की होड़ में हम पाश्चात्य सभ्यता के रंग में कुछ इस कदर रंग चुके है कि माँ की लोरी, गाँव की मीठी बोली, खेत खलियान, मुंडेर, बावड़ियां, कुएंॅं, मेलें, तीज, त्यौहार व लोक परम्पराएं पीछे छूट सी गई है।

आज की युवा पीढ़ी पहाड़ी बोली नहीं जानते, कसूर उनका नहीं, कसूर अभिभावक का है, जो उन्हें इन सब से दूर रख रहें है। बच्चे हिन्दी और अंग्रजी तो फर्राटें से बोलते हैं लेकिन मीठी बोली, माँॅं की बोली व गाँव की बोली की मिठास नही समझ पाते। हम ही उसे टोकते है अगर वह गाँव में पहाडी़ में बात कर ले तो हम यही कहते है कि नहीं बेटा ऐसा नहीं बोलते ;ैचमंा पद म्दहसपेीद्ध नहीं तो स्कूल में तुम्हारी वाणी बिगड़ जाएगी।

पहाडी़ बोली के अस्तित्व को बिखरने से रोकना है तो यह हम सभी की नैतिक जिम्मेदारी है कि हम अपने बच्चों को हिन्दी और अंग्रेजी के इलावा मातृ बोली बोलना भी सिखाएं।

अभिभावक की भी ये नैतिक जिम्मेदारी है कि अपने बच्चों में बचपन से ही पहाड़ी बोली के महत्त्व को बताएं। वे अपने बच्चों को संस्कार का बीज अपनी स्थानीय बोली को जीवित रख कर बो सकते हैं, जिससे न केवल बच्चों में लोक संस्कृति, लोक साहित्य व इसके इतिहास में रुचि पैदा होगी, साथ ही उनका नैतिक और बौद्धिक विकास भी होगा। आधुनिकता की चकाचौंध भी उनकी मानसिकता व मूल्यों को बदल नहीं पाएगी। युवा पीढ़ी माँ बोली, गाँव की मीठी बोली को अपना कर अपने जीवन मूल्यों को संमझे और अपनी युवा सोच से देश के नवनिर्माण में अपनी भागदारी सुनिश्चित करें ।

यदि हम आज नहीं संभले तो पहाडी़ बोली के अस्तित्व को तलाशते नज़र आएगें कि हमारे पूर्वज किस बोली में अपने मनोभाव को व्यक्त करते थे। तब शायद बोली के इस मूल रूप को समझने वाले कोई न हो, इसलिए प्रत्येक ज़िला की बोलियांे को सहज कर रखने की नितांत आवश्यकता है।

दिवाली और दषहरा हिमाचल प्रदेष के खास त्योहार है। बूढ़ी दिवाली दीपावली के एक महीने बाद मनाई जाती है। निरमण्ड की बूढ़ी दिवाली हर साल मनाई जाती है जबकि कोटगढ़ के मैलन गाँव की ‘बूढ़ी दिवाली’ तीन साल बाद मनाई जाती है। बूढ़ी दिवाली अमावस्या को मनाई जाती है जो दो दिन तक चलती है। पहले दिन रात को मंदिर के प्रांगण में लकड़ी का अलाव जलाया जाता है जिसे बलराज (भडरांणां) कहते हैं और उसके चारों ओर पारंपरिक गीतों के साथ्ज्ञ नाच गाना होता है जिसे पहाड़ी बोली में ठामरू कहा जाता है। जलती मषालें हाथ में लिए सभी ग्रामवासी नाचते हैं और सुंदर दृष्य देखने को मिलता है। साथ ही देवता चतुर्मुख जी भी मंदिर के प्रांगण में इस पारंपरिक नृत्य का साक्षी बनते हैं और पूरे गाँव की परिक्रमा वाद्य यंत्रों, मन्त्रोचारण की मधुर धुन के साथ करते हैं। उसके पष्चात अपने देवस्थान पर बैठ कर सबको आर्षीवाद देते हैं। सभी ग्रामीण श्रद्धानुसार देवनानू को अनाज, आटा, चावल, फूल जिसे पहाड़ी में रवहाड़ी कहते हैं, मुट्ठी भर प्रदान कर आर्षीवाद लेते हैं। ठामरू नृत्य में जो पारंपरिक पहाड़ी गीत गाए जाते हैं। उनमें से कुछ इस प्रकार से हैः-

पहाड़ीः-

1. देवड़े बोले देवड़िये
जुण न बोलो कुकरी छोले
बोल देवड़े-देवड़िये-
2. आरो बिको-पारो बिको
मारे देवा काये सुनेयो टिको
बोल देवड़े-देवाड़िये।।

दूसरे दिन मंदिर के खुले प्रांगण में एक पवित्र घास (काष) की बनी रस्सी जिसे पहाड़ी बोली में बांड बोलते हैं उसको सभी पुरूष हाथ में लेकर माला में नाचते हैं और देवता के गूर उसके षिखर को काट कर बीच में फैंकते हैं जो भी इसे जीत कर घर ले जाते हैं उसे बहुत ही शुभ माना जाता है। बूढ़ी दिवाली मनाने की यह प्रथा पुराने ज़माने से चली आ रही है और आज भी सभी लोग खासकर युवा इस परंपरा को निभाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। शहरों में बसे स्थानीय लोग खास तौर से बूढ़ी दिवाली मनाने गाँव की मुंडेर तक जरूर पहुंचते हैं।

वर्तमान परिपेक्ष्य की अगर हम बात करें तो आधुनिक चकाचौंध में हमारी परंपरा थोड़ी षिथिल जरूर हुई है मगर, आज भी युवा पीढ़ी को पाष्चात्य सभ्यता की जड़ें नहीं हिला पाई है। जरूरत है तो सिर्फ उन्हें इन परंपराओं और पौराणिक रितिरिवाजों के प्रति सजग करवाने की ताकि ये परंपराएं हमारी आने वाली पीढ़ी तक यथावत सहजकर रह सके।

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