उमा ठाकुर, पंथाघाटी, शिमला

प्रेम करुणा, सहनशीलता, स्नेह त्याग, ममतामयी,
ईश्वर का प्रतिरूप ।
परिवार की धूरी, रिश्तों की डोर, मीठी लोरी,
हौंसला पहाड़ सा, होती है माँ ।।
कोरे कागज़ सा बचपन, संस्कारों के,
स्नेहमयी स्पर्श से, सहेजती, संवारती ।
धूप में छाँव बन, दर्द में दवा बन, अवैतनिक,
जिन्न सी, दायित्व निभाती, जीवन संघर्ष है माँ ।।
प्रथम गुरु, दोस्त, शिक्षिका, न जाने कितने,
अथाह शब्द, छुपे हैं माँ रूपी, अनमोल एहसास में ।
स्कूल की छुट्टी पर, इंतजार में बैठी, सखियों से बतियाती,
कुछ पल चुराती, सतरंगी सपने बुनते–बुनते,
भरपूर जीवन, जी लेती है माँ ।।
ऊनी स्वेटर के डिजाईन में, बेटी के बालों की चोटियाँ बनाती,
गुल्लक सी, खुशियाँ तलाशती ।
अख़बारों की सुर्खियों से, सहम कर,
यूं ही बेवजह, बेटी को गले, लगा लेती है माँ ।।
माँ से मायका, एहसास पूर्णता का, दुल्हन बनी बेटी की,
कलीरों में दुआ बन, फिर सास रूपी ढाल, बन जाती है माँ ।
रस्मों रिवाज निभाते–निभाते, दूल्हा बने बेटे को,
देवड़ी पर गोद में बिठा, उम्र भर के लिए,
ममता दामन में, समेट लेना चाहती है माँ ।।
मुंडेर पर दीप जलाये, शहरी बने बेटे के लौटने की आस,
सरहद पर डटे बेटे की, सलामती की दुआ,
में शामिल करुणा सी है माँ ।
मदर टेरेसा, सिंधुताई सपकाल, मंदाकिनी आम्टे जैसी,
अनेकों वातसल्य की मूरत का,
परिवार, समाज से विश्वपटल तक का सफर,
सशक्त, सक्षम, बनाती है माँ ।।
आसमां की बुलंदी, सागर की गहराई जितना,
आदि से अनंत तक किसी ग्रंथ में भी,
न समाये, ऐसा शब्द है माँ ।
प्रकृति सी निस्वार्थ, बस देना जाने, है इतनी सी ख़्वाहिश,
की खुशियों के कुछ पल, बच्चों से ले उधार, बचपन दुबारा जीना,
चाहती है माँ ।।

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