कल्पना गांगटा, शिमला

मेरा गाँव अब रहा नहीं मेरा,
हर डगर पर किया शहर ने बसेरा,
अकेला है आज गाँव का चौपाल,
मंडली जमती थी जवानों की,
बुजुर्गों का लगा करता था जहां डेरा,
था वो चलते फिरते पथिकों का भी पल दो पल का बसेरा ।
सुनसान है अब गाँव का चौपाल,
जहां आता नहीं कोई आज,
सिमट कर रह गया इंसान का जीवन, बदलते परिवेश में,
बदल गया नजरिया शहरी सोच के समावेश में ।
गाँव के बाशिंदों का चौपाल में जाना,
एक दूजे की समस्याएँ सुलझाना,
कहाँ वक्त मिलता अब बदलती हवा के कारण,
गाँव के चौपाल में समहर्ता करना,
उजड़ गए गाँव खलिहान शहर में जीने की ललक लिए,
पर जरूरी है आज भी बचाए रखना,
गाँव में एक ऐसा कोना मिलकर जहां बैठें सभी,
चला रहे सबके सुख-दुख में शामिल होना ।

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