सीताराम शर्मा सिद्धार्थ, शिमला

तुम नहीं प्रेयसी,
न ही मंजिल न ख्वाब,
दोस्त भी नहीं,
भय भी नहीं,
कार्तिक पूर्णिमा का चंद्र भी नहीं,
कि तुम्हारे मुखड़े को देख,
वर्ष भर के लिए बसा लूं तुम्हें मन में,
नेत्रहीन की तरह,
कयास लगाता हूं,
तुम्हारी वज्र आभा का,
परस्त्री !
तुम्हारी लालसा  नहीं,
शायद,
कौतूहल …
या जिज्ञासा,
कि पढ़ सकूं,
तुम्हें तस्लीमा नसरीन की,
प्रतिबंधित पुस्तक की तरह,
चुराकर बचाकर,
और रख दूं वहीं जहां तुम थी जहां हो,
सुरक्षित अलमारियों में,
खामोशी के बीच…

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